सीधी सादी ग़ज़लें

by sksaini4 on July 01, 2011, 04:39:58 AM
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sksaini4
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जब  कभी  भी   ज़िन्दगी  की खोल  कर  देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म  तब  रोई  किताब ||


देख   कर   नाकामियाँ    एसी   मेरी  तालीम    की |
फेंक    दी बच्चे   ने मेरे  एकदम  अपनी    किताब ||


फेल   होने   पर   मेरा बच्चा   जो  रोया  जार-जार |
मैंने  पूछा  क्या  मियाँ  तुमने  पढ़ी  भी थी  किताब ?


जिसमें  रक्खे थे  किसी   के  ख़त  हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त  की  दीमक  ने  कब की चाट ली सारी  किताब ||


देखता   हूँ  जब   कभी   उलझा   किताबों  में  मिले |
काम  की  होती  नहीं   कोई  मगर  उसकी   किताब ||


ज़िन्दगी  शायद  सँवर  जाती  मेरी भी कुछ  न कुछ |
खोल  कर  जो  देखता  माँ-बाप की अच्छी  किताब ||


आप  जिसको  ढूंढते  फिरते  हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी  है  अस्ल  में  वो  आपकी  असली  किताब||


    डा० सुरेन्द्र सैनी

ख़त्म  क्यों  हो  न पाई ग़रीबी ?
आज   भी  है ग़रीबी   ग़रीबी ||


आपकी   सादगी    सादगी   है |
सादगी   है  हमारी      ग़रीबी ||


आदमी   कुछ   भी कर  बैठता है |
जब  कभी  भी   सताती  ग़रीबी ||


उम्र  से  लग  रहा   है  वो  बूढ़ा |
ओढ़  उसने  जो   रक्खी   ग़रीबी ||


बेटियों     की  तरफ़   देखता  हूँ |
नोचती    मुझको    मेरी  ग़रीबी ||


बात बढ़- बढ़   के सब  बोलते हैं |
क्या  किसी  ने   हटा दी  ग़रीबी ?


मर  गया  वो  ग़रीबी में आख़िर |
पर  न  मर पाई उसकी  ग़रीबी ||


अपने अख़लाक़ से  गिर  न जाऊं |
इससे  अच्छी  है  प्यारी  ग़रीबी ||


काम आती   सियासत में अक्सर |
ये   हमारी   तुम्हारी    ग़रीबी ||


                     डा० सुरेन्द्र सैनी

सख़्त  थोड़ी ज़ुबाँ  है  तो क्या है ?
आदमी   वो  मगर काम  का है ||


देर   तक   वो  मुझे  देखता  है |
मेरे    बारे में  क्या  सोचता  है ?


खोल  कर  माल देखा  तो नकली |
चिपका   लेबल  बड़े नाम का है ||


झूठ   का   कर रहा ये  दिखावा |
सर ज़मीं तक झुका कर मिला है ||


ज़हर  जिसमे  हसद का  भरा  है |
वो   किसी  को  नहीं छोड़ता  है ||


साँप   तो    छेड़ने  पर  ही  काटे |
आदमी    हर   समय काटता  है ||


जान   अटकी   हुई   है  उसी  में |
बेटा   लेकर  के   बाइक गया  है ||


है   पडौसी   की  आदत  बुरी  ये |
घर  से  निकलो   तभी टोकता है ||


भूलने की   अजब   उसकी आदत |
नाम  बस  मेरा  ही  भूलता  है ||


                           डा०  सुरेन्द्र सैनी
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khujli
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«Reply #1 on: July 05, 2011, 12:49:32 PM »
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जब  कभी  भी   ज़िन्दगी  की खोल  कर  देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म  तब  रोई  किताब ||


देख   कर   नाकामियाँ    एसी   मेरी  तालीम    की |
फेंक    दी बच्चे   ने मेरे  एकदम  अपनी    किताब ||


फेल   होने   पर   मेरा बच्चा   जो  रोया  जार-जार |
मैंने  पूछा  क्या  मियाँ  तुमने  पढ़ी  भी थी  किताब ?


जिसमें  रक्खे थे  किसी   के  ख़त  हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त  की  दीमक  ने  कब की चाट ली सारी  किताब ||


देखता   हूँ  जब   कभी   उलझा   किताबों  में  मिले |
काम  की  होती  नहीं   कोई  मगर  उसकी   किताब ||


ज़िन्दगी  शायद  सँवर  जाती  मेरी भी कुछ  न कुछ |
खोल  कर  जो  देखता  माँ-बाप की अच्छी  किताब ||


आप  जिसको  ढूंढते  फिरते  हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी  है  अस्ल  में  वो  आपकी  असली  किताब||


    डा० सुरेन्द्र सैनी

ख़त्म  क्यों  हो  न पाई ग़रीबी ?
आज   भी  है ग़रीबी   ग़रीबी ||


आपकी   सादगी    सादगी   है |
सादगी   है  हमारी      ग़रीबी ||


आदमी   कुछ   भी कर  बैठता है |
जब  कभी  भी   सताती  ग़रीबी ||


उम्र  से  लग  रहा   है  वो  बूढ़ा |
ओढ़  उसने  जो   रक्खी   ग़रीबी ||


बेटियों     की  तरफ़   देखता  हूँ |
नोचती    मुझको    मेरी  ग़रीबी ||


बात बढ़- बढ़   के सब  बोलते हैं |
क्या  किसी  ने   हटा दी  ग़रीबी ?


मर  गया  वो  ग़रीबी में आख़िर |
पर  न  मर पाई उसकी  ग़रीबी ||


अपने अख़लाक़ से  गिर  न जाऊं |
इससे  अच्छी  है  प्यारी  ग़रीबी ||


काम आती   सियासत में अक्सर |
ये   हमारी   तुम्हारी    ग़रीबी ||


                     डा० सुरेन्द्र सैनी

सख़्त  थोड़ी ज़ुबाँ  है  तो क्या है ?
आदमी   वो  मगर काम  का है ||


देर   तक   वो  मुझे  देखता  है |
मेरे    बारे में  क्या  सोचता  है ?


खोल  कर  माल देखा  तो नकली |
चिपका   लेबल  बड़े नाम का है ||


झूठ   का   कर रहा ये  दिखावा |
सर ज़मीं तक झुका कर मिला है ||


ज़हर  जिसमे  हसद का  भरा  है |
वो   किसी  को  नहीं छोड़ता  है ||


साँप   तो    छेड़ने  पर  ही  काटे |
आदमी    हर   समय काटता  है ||


जान   अटकी   हुई   है  उसी  में |
बेटा   लेकर  के   बाइक गया  है ||


है   पडौसी   की  आदत  बुरी  ये |
घर  से  निकलो   तभी टोकता है ||


भूलने की   अजब   उसकी आदत |
नाम  बस  मेरा  ही  भूलता  है ||


                           डा०  सुरेन्द्र सैनी



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sbechain
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«Reply #2 on: September 29, 2011, 08:01:00 AM »
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bahut khoob saini ji

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sksaini4
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«Reply #3 on: January 12, 2012, 10:08:31 AM »
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Qalb ji,Sheba ji bahut bahut shukriya
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sksaini4
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«Reply #4 on: February 05, 2012, 04:32:58 AM »
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Qalb ji bahut bahut shukriya
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himanshuIITR
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«Reply #5 on: April 21, 2012, 06:24:25 AM »
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simple, and amazing! Applause Applause Applause Applause Applause Applause
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sksaini4
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«Reply #6 on: April 22, 2012, 04:12:17 AM »
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himaanshu ji thanks
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«Reply #7 on: October 16, 2012, 07:34:33 PM »
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जब  कभी  भी   ज़िन्दगी  की खोल  कर  देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म  तब  रोई  किताब ||


देख   कर   नाकामियाँ    एसी   मेरी  तालीम    की |
फेंक    दी बच्चे   ने मेरे  एकदम  अपनी    किताब ||


फेल   होने   पर   मेरा बच्चा   जो  रोया  जार-जार |
मैंने  पूछा  क्या  मियाँ  तुमने  पढ़ी  भी थी  किताब ?


जिसमें  रक्खे थे  किसी   के  ख़त  हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त  की  दीमक  ने  कब की चाट ली सारी  किताब ||


देखता   हूँ  जब   कभी   उलझा   किताबों  में  मिले |
काम  की  होती  नहीं   कोई  मगर  उसकी   किताब ||


ज़िन्दगी  शायद  सँवर  जाती  मेरी भी कुछ  न कुछ |
खोल  कर  जो  देखता  माँ-बाप की अच्छी  किताब ||


आप  जिसको  ढूंढते  फिरते  हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी  है  अस्ल  में  वो  आपकी  असली  किताब||


    डा० सुरेन्द्र सैनी

ख़त्म  क्यों  हो  न पाई ग़रीबी ?
आज   भी  है ग़रीबी   ग़रीबी ||


आपकी   सादगी    सादगी   है |
सादगी   है  हमारी      ग़रीबी ||


आदमी   कुछ   भी कर  बैठता है |
जब  कभी  भी   सताती  ग़रीबी ||


उम्र  से  लग  रहा   है  वो  बूढ़ा |
ओढ़  उसने  जो   रक्खी   ग़रीबी ||


बेटियों     की  तरफ़   देखता  हूँ |
नोचती    मुझको    मेरी  ग़रीबी ||


बात बढ़- बढ़   के सब  बोलते हैं |
क्या  किसी  ने   हटा दी  ग़रीबी ?


मर  गया  वो  ग़रीबी में आख़िर |
पर  न  मर पाई उसकी  ग़रीबी ||


अपने अख़लाक़ से  गिर  न जाऊं |
इससे  अच्छी  है  प्यारी  ग़रीबी ||


काम आती   सियासत में अक्सर |
ये   हमारी   तुम्हारी    ग़रीबी ||


                     डा० सुरेन्द्र सैनी

सख़्त  थोड़ी ज़ुबाँ  है  तो क्या है ?
आदमी   वो  मगर काम  का है ||


देर   तक   वो  मुझे  देखता  है |
मेरे    बारे में  क्या  सोचता  है ?


खोल  कर  माल देखा  तो नकली |
चिपका   लेबल  बड़े नाम का है ||


झूठ   का   कर रहा ये  दिखावा |
सर ज़मीं तक झुका कर मिला है ||


ज़हर  जिसमे  हसद का  भरा  है |
वो   किसी  को  नहीं छोड़ता  है ||


साँप   तो    छेड़ने  पर  ही  काटे |
आदमी    हर   समय काटता  है ||


जान   अटकी   हुई   है  उसी  में |
बेटा   लेकर  के   बाइक गया  है ||


है   पडौसी   की  आदत  बुरी  ये |
घर  से  निकलो   तभी टोकता है ||


भूलने की   अजब   उसकी आदत |
नाम  बस  मेरा  ही  भूलता  है ||


                           डा०  सुरेन्द्र सैनी

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«Reply #8 on: October 20, 2014, 04:44:44 AM »
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«Reply #9 on: October 20, 2014, 06:29:48 AM »
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बहुत खूब | बहुत सुंदर है,ये सीधी-साधी गजले| अर्ज है

देखन मे छोटी लगी,पर घाव करे गंभीर
अपनाया तो जिंदगी मे बदल गई तकदीर


आर के रस्तोगी
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