सवाल छोड़ जाती हूँ

by nandbahu on June 04, 2020, 03:04:54 PM
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nandbahu
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कितना अमानवीय हो गया इंसान आज, विवेक को तज दिया स्वार्थ के आगे,
इंसान की तो बात क्या करें हम आज, मूक जानवर को भी छोड़ा न उसने।
क्या गुजरी होगी गर्भवती हथिनी पे, जिसके विश्वास को चीर चीर कर दिया,
मरते समय माफी मांग रही होगी विवश, अजन्मे शिशु से वो नीर अपने बहा।
मैं न जन्म दे सकी तुझे मेरे बच्चे, मेरे ही संग चलना है तुझे उस पार,
निर्दयी समाज है ये लोग यहां निर्दयी,अच्छा ही हुआ तुझे जन्म न दी इस बार।
जल में समाधि ली कष्ट सहके भी, तमाशा न बनाया तुझे मैंने समाज का,
मेरी जो गति हुई वो मैंने ही सही, किसी ने भी हाथ न बढ़ाया मदद का।
मरके भी सवाल छोड़ जाती हूँ सभी के लिए, क्यों मनोरंजन का खिलौना बनाते हमे,
रहने दो हमें जंगल  अपनों के बीच, घर को उजाड़े क्यों निज स्वार्थ के लिये।
शहरीकरण के लिये हमारी ही जमीन को, क्यों हड़प रहे हो बरसो से दानव बन,
न तुम्हारी दया चाहिए न ही मित्रता के भूखे, दया करो मानव सदा सदा के लिये अब।
हे नटराज तू तीसरी आंख खोल, मानव की क्रूरता को रोक दे अब तू,
मैं तो मर गई अब दूसरा न मरे कोई, ऐसी सृष्टि का नव निर्माण कर तू।
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nandbahu
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«Reply #1 on: June 04, 2020, 03:06:24 PM »
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कितना अमानवीय हो गया इंसान आज, विवेक को तज दिया स्वार्थ के आगे,
इंसान की तो बात क्या करें हम आज, मूक जानवर को भी छोड़ा न उसने।
क्या गुजरी होगी गर्भवती हथिनी पे, जिसके विश्वास को चीर चीर कर दिया,
मरते समय माफी मांग रही होगी विवश, अजन्मे शिशु से वो नीर अपने बहा।
मैं न जन्म दे सकी तुझे मेरे बच्चे, मेरे ही संग चलना है तुझे उस पार,
निर्दयी समाज है ये लोग यहां निर्दयी,अच्छा ही हुआ तुझे जन्म न दी इस बार।
जल में समाधि ली कष्ट सहके भी, तमाशा न बनाया तुझे मैंने समाज का,
मेरी जो गति हुई वो मैंने ही सही, किसी ने भी हाथ न बढ़ाया मदद का।
मरके भी सवाल छोड़ जाती हूँ सभी के लिए, क्यों मनोरंजन का खिलौना बनाते हमे,
रहने दो हमें जंगल  अपनों के बीच, घर को उजाड़े क्यों निज स्वार्थ के लिये।
शहरीकरण के लिये हमारी ही जमीन को, क्यों हड़प रहे हो बरसो से दानव बन,
न तुम्हारी दया चाहिए न ही मित्रता के भूखे, दया करो मानव सदा सदा के लिये अब।
हे नटराज तू तीसरी आंख खोल, मानव की क्रूरता को रोक दे अब तू,
मैं तो मर गई अब दूसरा न मरे कोई, ऐसी सृष्टि का नव निर्माण कर तू।
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«Reply #2 on: June 04, 2020, 09:02:24 PM »
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nandbahu
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«Reply #3 on: June 05, 2020, 04:40:01 AM »
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बहुत धन्यवाद भाई जी। मन क्षुब्ध था सोचकर कि कैसे कोई इंसान इतना निर्दयी हो सकता है। आत्मा कांप जाती है मूक गर्भवती हथिनी के दर्द को सोचकर। कितना तड़पी होगी सात दिन। भूख से लाचार थी इसलिये विश्वास कर बैठी इंसान के रूप में छिपे दानव पर। कितना और पतन होगा मानवता का।
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surindarn
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«Reply #4 on: June 05, 2020, 01:25:06 PM »
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कितना अमानवीय हो गया इंसान आज, विवेक को तज दिया स्वार्थ के आगे,
इंसान की तो बात क्या करें हम आज, मूक जानवर को भी छोड़ा न उसने।
क्या गुजरी होगी गर्भवती हथिनी पे, जिसके विश्वास को चीर चीर कर दिया,
मरते समय माफी मांग रही होगी विवश, अजन्मे शिशु से वो नीर अपने बहा।
मैं न जन्म दे सकी तुझे मेरे बच्चे, मेरे ही संग चलना है तुझे उस पार,
निर्दयी समाज है ये लोग यहां निर्दयी,अच्छा ही हुआ तुझे जन्म न दी इस बार।
जल में समाधि ली कष्ट सहके भी, तमाशा न बनाया तुझे मैंने समाज का,
मेरी जो गति हुई वो मैंने ही सही, किसी ने भी हाथ न बढ़ाया मदद का।
मरके भी सवाल छोड़ जाती हूँ सभी के लिए, क्यों मनोरंजन का खिलौना बनाते हमे,
रहने दो हमें जंगल  अपनों के बीच, घर को उजाड़े क्यों निज स्वार्थ के लिये।
शहरीकरण के लिये हमारी ही जमीन को, क्यों हड़प रहे हो बरसो से दानव बन,
न तुम्हारी दया चाहिए न ही मित्रता के भूखे, दया करो मानव सदा सदा के लिये अब।
हे नटराज तू तीसरी आंख खोल, मानव की क्रूरता को रोक दे अब तू,
मैं तो मर गई अब दूसरा न मरे कोई, ऐसी सृष्टि का नव निर्माण कर तू।
कितना अमानवीय हो गया इंसान आज, विवेक को तज दिया स्वार्थ के आगे,
इंसान की तो बात क्या करें हम आज, मूक जानवर को भी छोड़ा न उसने।
क्या गुजरी होगी गर्भवती हथिनी पे, जिसके विश्वास को चीर चीर कर दिया,
मरते समय माफी मांग रही होगी विवश, अजन्मे शिशु से वो नीर अपने बहा।
मैं न जन्म दे सकी तुझे मेरे बच्चे, मेरे ही संग चलना है तुझे उस पार,
निर्दयी समाज है ये लोग यहां निर्दयी,अच्छा ही हुआ तुझे जन्म न दी इस बार।
जल में समाधि ली कष्ट सहके भी, तमाशा न बनाया तुझे मैंने समाज का,
मेरी जो गति हुई वो मैंने ही सही, किसी ने भी हाथ न बढ़ाया मदद का।
मरके भी सवाल छोड़ जाती हूँ सभी के लिए, क्यों मनोरंजन का खिलौना बनाते हमे,
रहने दो हमें जंगल  अपनों के बीच, घर को उजाड़े क्यों निज स्वार्थ के लिये।
शहरीकरण के लिये हमारी ही जमीन को, क्यों हड़प रहे हो बरसो से दानव बन,
न तुम्हारी दया चाहिए न ही मित्रता के भूखे, दया करो मानव सदा सदा के लिये अब।
हे नटराज तू तीसरी आंख खोल, मानव की क्रूरता को रोक दे अब तू,
मैं तो मर गई अब दूसरा न मरे कोई, ऐसी सृष्टि का नव निर्माण कर तू।
Waah waaaahhhhh waaaaaaaahhhhhhhhhhhh..................
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«Reply #5 on: June 06, 2020, 02:14:52 PM »
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कितना अमानवीय हो गया इंसान आज, विवेक को तज दिया स्वार्थ के आगे,
इंसान की तो बात क्या करें हम आज, मूक जानवर को भी छोड़ा न उसने।
क्या गुजरी होगी गर्भवती हथिनी पे, जिसके विश्वास को चीर चीर कर दिया,
मरते समय माफी मांग रही होगी विवश, अजन्मे शिशु से वो नीर अपने बहा।
मैं न जन्म दे सकी तुझे मेरे बच्चे, मेरे ही संग चलना है तुझे उस पार,
निर्दयी समाज है ये लोग यहां निर्दयी,अच्छा ही हुआ तुझे जन्म न दी इस बार।
जल में समाधि ली कष्ट सहके भी, तमाशा न बनाया तुझे मैंने समाज का,
मेरी जो गति हुई वो मैंने ही सही, किसी ने भी हाथ न बढ़ाया मदद का।
मरके भी सवाल छोड़ जाती हूँ सभी के लिए, क्यों मनोरंजन का खिलौना बनाते हमे,
रहने दो हमें जंगल  अपनों के बीच, घर को उजाड़े क्यों निज स्वार्थ के लिये।
शहरीकरण के लिये हमारी ही जमीन को, क्यों हड़प रहे हो बरसो से दानव बन,
न तुम्हारी दया चाहिए न ही मित्रता के भूखे, दया करो मानव सदा सदा लिये अब।
हे नटराज तू तीसरी आंख खोल, मानव की क्रूरता को रोक दे अब तू,
मैं तो मर गई अब दूसरा न मरे कोई, ऐसी सृष्टि का नव निर्माण कर तू।
Bahut umdaa vichaar aur qalaam hain, dheron daad.
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nandbahu
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«Reply #6 on: June 07, 2020, 03:15:37 AM »
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बहुत धन्यवाद मित्रवर। मन क्षुब्ध था, इसलिये कुछ पंक्तियां लिख डाली
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