Sant Kabirdaas ji ki rachnaayen

by @Kaash on September 22, 2013, 01:58:55 PM
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sksaini4
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«Reply #15 on: September 22, 2013, 07:11:15 PM »
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Nice collection
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@Kaash
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«Reply #16 on: September 24, 2013, 05:57:37 PM »
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Nice collection

Sainy ji,shukriya!
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@Kaash
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«Reply #17 on: September 24, 2013, 06:27:30 PM »
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मोको कहां ढूढें तू बंदे मैं तो तेरे पास मे ।


ना मैं बकरी ना मैं भेडी ना मैं छुरी गंडास मे ।

नही खाल में नही पूंछ में ना हड्डी ना मांस मे ॥


ना मै देवल ना मै मसजिद ना काबे कैलाश मे ।

ना तो कोनी क्रिया-कर्म मे नही जोग-बैराग मे ॥


खोजी होय तुरंतै मिलिहौं पल भर की तलास मे

मै तो रहौं सहर के बाहर मेरी पुरी मवास मे


कहै कबीर सुनो भाई साधो सब सांसो की सांस मे ॥
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@Kaash
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«Reply #18 on: September 24, 2013, 06:28:05 PM »
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घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।

घट-घट मे वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥

धन जोबन का गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।

सुन्न महल मे दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।

जागू जुगुत सों रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।

कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥
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@Kaash
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«Reply #19 on: September 24, 2013, 06:39:44 PM »
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राम बिनु तन को ताप न जाई ।

जल में अगन रही अधिकाई ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई ॥



तुम जलनिधि मैं जलकर मीना ।

जल में रहहि जलहि बिनु जीना ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई ॥



तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा ।

दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई ॥



तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला ।

कहै कबीर राम रमूं अकेला ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
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@Kaash
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«Reply #20 on: September 24, 2013, 06:46:44 PM »
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नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार ॥


साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये ।

हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं ।

अंतरयामी एक तुम आतम के आधार ।

जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार ॥

गुरु बिन कैसे लागे पार ॥



मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार ।

तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार ।

अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़ ।

जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज ॥

गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
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@Kaash
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«Reply #21 on: September 24, 2013, 06:49:45 PM »
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भजो रे भैया राम गोविंद हरी ।
राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी ॥
जप तप साधन नहिं कछु लागत, खरचत नहिं गठरी ॥
संतत संपत सुख के कारन, जासे भूल परी ॥
कहत कबीर राम नहीं जा मुख, ता मुख धूल भरी ॥
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@Kaash
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«Reply #22 on: September 24, 2013, 07:52:22 PM »
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रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥

सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,
प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥

सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,
सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥

परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,
टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥

दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,
चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥
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@Kaash
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«Reply #23 on: September 24, 2013, 07:55:16 PM »
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दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ ॥

पहिला जनम भूत का पै हौ, सात जनम पछिताहौउ।
काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही मरि जैहौ ॥ १॥

दूजा जनम सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लैहौ ।
टूटे पंख मॅंडराने अधफड प्रान गॅंवैहौ ॥ २॥

बाजीगर के बानर होइ हौ, लकडिन नाच नचैहौ ।
ऊॅंच नीच से हाय पसरि हौ, माँगे भीख न पैहौ ॥ ३॥

तेली के घर बैला होइहौ, आॅंखिन ढाँपि ढॅंपैहौउ ।
कोस पचास घरै माँ चलिहौ, बाहर होन न पैहौ ॥ ४॥

पॅंचवा जनम ऊॅंट का पैहौ, बिन तोलन बोझ लदैहौ ।
बैठे से तो उठन न पैहौ, खुरच खुरच मरि जैहौ ॥ ५॥

धोबी घर गदहा होइहौ, कटी घास नहिं पैंहौ ।
लदी लादि आपु चढि बैठे, लै घटे पहुँचैंहौ ॥ ६॥

पंछिन माँ तो कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ ।
उडि के जय बैठि मैले थल, गहिरे चोंच लगैहौ ॥ ७॥

सत्तनाम की हेर न करिहौ, मन ही मन पछितैहौउ ।
कहै कबीर सुनो भै साधो, नरक नसेनी पैहौ ॥ ८॥
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@Kaash
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«Reply #24 on: September 24, 2013, 07:56:11 PM »
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कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।।

चंदन काठ के बनल खटोला
ता पर दुलहिन सूतल हो।

उठो सखी री माँग संवारो
दुलहा मो से रूठल हो।

आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा
नैनन अंसुवा टूटल हो

चार जाने मिल खाट उठाइन
चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो

कहत कबीर सुनो भाई साधो
जग से नाता छूटल हो
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@Kaash
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«Reply #25 on: September 24, 2013, 07:58:29 PM »
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निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
जहाँ न तनिक न्याय विचार ।।

रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।
धूर-धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।
वेश्या ओढे़ खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।
पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।
पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।
अज्ञानी को परम‌ ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।
साँच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।
कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।
निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
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nandbahu
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«Reply #26 on: September 25, 2013, 07:20:08 PM »
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very nice sharing kash ji
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@Kaash
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«Reply #27 on: October 04, 2013, 01:21:56 AM »
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very nice sharing kash ji
Nandbahu ji, bahut dhanyawaad!
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@Kaash
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«Reply #28 on: October 04, 2013, 01:27:36 AM »
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माया महा ठगनी हम जानी।।

तिरगुन फांस लिए कर डोले

बोले मधुरे बानी।।

 

केसव के कमला वे बैठी

शिव के भवन भवानी।।

पंडा के मूरत वे बैठीं

तीरथ में भई पानी।।

 

योगी के योगन वे बैठी

राजा के घर रानी।।

काहू के हीरा वे बैठी

काहू के कौड़ी कानी।।

 

भगतन की भगतिन वे बैठी

बृह्मा के बृह्माणी।।

कहे कबीर सुनो भई साधो

यह सब अकथ कहानी।।
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@Kaash
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«Reply #29 on: October 06, 2013, 02:22:55 AM »
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काहे री नलिनी तू कुमिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहे 'कबीर जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान।
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