ripan dev
Guest
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गर्मियों की रुत में, वो गुलमोहर का पेड़, जब फूलों से लद जाता था, महकते थे वो फूल, किसी अनजानी सी खुशबु से, और आती थी तुम, मुझसे मिलने उसके तले, कितनी खुश रहती थी तुम उन दिनों, मैं जान नहीं पता था, मुझसे मिलके खुश होती थी, या उस गुलमोहर के फूल देखकर,,
खैर, वो गुलमोहर भी तुम्हे देख, गिरा देता था छम से, एक फूल ठीक वहीँ पर, जहाँ खड़ी मुझे निहारती थी तुम, उठा लेती थी तुम वो फूल, और मुझे दिखाकर चिढाया करती थी... फिर देर तक कितना बोलती थी तुम, मैं और वो गुलमोहर बस देखा करते थे तुम्हे बोलते हुए,
और फिर अचानक किसी वजह से, या कई बार बिना वजह के, उठकर चल देती थी तुम, रूठ जाती थी न जाने क्यूँ,
मैं और वो गुलमोहर बेबस से, देखते थे तुम्हे जाते हुए, फिर बाकि के मौसम, गुजरते थे तुम्हे मनाने में,
ऐसी ही किसी गर्मी की दुपहर, गई थी तुम रूठकर, मगर उसके बाद कितनी गर्मियां गुजरी, न तुम लौटी, न वो दिन लौटे, मैं तब भी अक्सर गुमसुम सा, उस गुलमोहर को, मिलने जाता था, तब भी खिलते तो थे फूल, पर पहले से महकते न थे, न ही गिरता था कोई फूल, ठीक उसी जगह जहाँ खड़ी होती थी तुम,
फिर एक दुपहर मैंने भी अलविदा कहा उस गुलमोहर को, उस शहर को ही छोड़ रहा था मैं, मेरी आँखों की नमी को भांपकर उस दिन गिराया था. एक फूल उसने ठीक वहीँ पर, जहाँ खड़ी होती थी तुम, मैं ले आया था वो फूल, और आज तक सहेजे हुए हूँ उसे, तुम्हारी और उसकी निशानी समझकर......
कितनी गर्मियां उसके बाद आई और गई, ज़िन्दगी से पाया बहुत कुछ मैंने, और शायद तुमने भी....
कोई शिकायत, कोई शिकवा अब ज़िन्दगी से नहीं, बस एक टीस सी कभी कभी उठती है, दिल में यही कि, वो गुलमोहर वहाँ अकेला होगा,
वो गुलमोहर वहाँ अकेला होगा.......
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