https://youtu.be/jAHu6YuxBIM                                                                                                                                                                                 मदालसा ने कहा, लाल मेरे! 
(भावानुवाद) -अरुण मिश्र मदालसा ने कहा, लाल मेरे !  
संसार-माया से मुक्त है तू। 
तू निष्कलुष, बुद्ध है, शुद्ध-आत्मा;
संसार है स्वप्न, तज मोह-निद्रा।।
पञ्चतत्वों की है, ये नहीं देह तेरी;
न तेरा कोई नाम, तू शुद्ध है तात।  
संज्ञा अभी जो मिली, वो भी कल्पित;
मेरे लाल ! फिर क्यों भला रो रहा है।।
या कि न रोता, रुदन-शब्द  तेरे, 
स्वयं जन्म लेते, तेरे पास आकर।  
तेरी इन्द्रियों के सकल दोष औ' गुण,  
भी हैं पञ्चभौतिक, ओ राजा के बेटे !!
अबल तत्त्व जैसे हैं अभिवृद्धि करते, 
सबल तत्त्व से पाके सहयोग जग में।
पा अन्न-जल , देह ही पुष्ट होती ;
आत्मा न बढ़ती न घटती है किञ्चित।।
ये देह कर्मों का फल है शुभाशुभ;
मद आदि से है, बँधा देह-चोला। 
अगर शीर्ण हो जाये, मत मोह करना,
तू आत्मा है, बँधा है न इससे ।।
कोई पिता, पुत्र कोई कहाता ; 
माता कोई और भार्या  है कोई। 
हैं पञ्चभूतों के ही रूप नाना;
कोई मेरा और कोई पराया ।।
दुःख मात्र ही, सारे भोगों का फल है;
पर मूढ़ उसको ही, सुख मानते हैं। 
दुःख वस्तुतः, भोग से प्राप्त सुख भी,
जो हैं नहीं मूढ़, वे जानते हैं ।। 
हँसी नारि की, अस्थियों का प्रदर्शन;
सुन्दर नयन-युग्म, मज्जा-कलुष हैं। 
सघन मांस की ग्रंथियाँ, कुच जो उभरे ;
नहीं नर्क क्या, तू है अनुरक्त जिससे ??   
चले रथ धरा पर, रथी किन्तु रथ में,
धरा को भला मोह क्या है रथी से। 
रहे आत्मा देह में पर जो ममता,
दिखे देह से तो यही मूढ़ता है ।।
             *मूल संस्कृत पाठ :"शुद्धोसि बुद्धोसि निरँजनोऽसि सँसारमाया परिवर्जितोऽसि 
सँसारस्वप्नँ त्यज मोहनिद्राँ मँदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्।।"
शुद्धोऽसि रे तात ! न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पञ्चात्मकं देहमिदं तवैतन् नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः॥२५.११॥
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोऽयमासाद्य महीशशूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते ऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु॥२५.१२॥
भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः ।
अन्नाम्बुपानादिभिरेव कस्य न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः॥२५.१३॥
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिंस् तस्मिंश्च देहे मूढतां मा व्रजेथाः ।
शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेतन् मदादिमूढैः सञ्चुकस्तेऽपिनद्धः॥२५.१४॥
तातेति किञ्चित्तनयेति किञ्चिद् अम्बेति किञ्चिद्दयितेति किञ्चित् ।
ममेति किञ्चिन्न ममेति किञ्चित् त्वं भूतसङ्घं बहुमानयेथाः॥२५.१५॥
दुः खानि दुः खोपगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढचेताः ।
तान्येव दुः खानि पुनः सुखानि जानात्यविद्वान सुविमूढयेताः॥२५.१६॥
हासोऽस्थिसन्दर्शनमक्षियुग्मम् अत्युज्ज्वलं तर्जनमङ्गनायाः ।
कुचादिपीनं पिशितं घनं तत् स्थानं रतेः किं नरकं न योषित्॥२५.१७॥
यानं क्षितौ यानगतञ्च देहं देहेऽपि चान्यः पुरुषो निविष्टः ।
ममत्वबुद्धिर्न तथा यथा स्वे देहेऽतिमात्रं बत मूढतैषा॥२५.१८॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे मदालसोपाख्याने पञ्चविंशोऽध्यायः
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