Ek Geet-Sagar ke teer par rait- By Kavi DeepakSharma

by kavyadharateam on October 01, 2008, 08:52:46 AM
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kavyadharateam
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सागर के तीर पर रेत के मैंने और तुमने
जो घरोंदे स्नेह के बनाये थे कभी
नयनों में अपने कल्पनाओं के दीपक
साथ मिलकर जिस जगह जलाए थे कभी
अब वहाँ कुछ भी नज़र आता नहीं
बस टूटती लहरों के साए दिखते हैं ॥

कुछ पथिक , कुछ लहरों के कदमों तले
स्वप्न सारे रेत ही रेत में मिल गए
राउंड कर घर निर्दयी पग के कारवां
काफिलों के रूप धर दूर निकल गए
गीत अब माँझी अब वहाँ गाता नहीं
बस दिल तड़पता है और अश्रु चीखते हैं ॥

अब नही वो अठखेलियाँ जिसकी फिजा में
आवाज मेरी आरजू की गूंजती थी
अब नही वहाँ लगते मेले चुहल के
जिनकी ज़िन्दगी कल बेफीक्र सी जहाँ घुमती थी
अब पाँव लहरों में वहाँ कोई भिगोता नहीं
बस लहरें टकराती हैं और पत्थर भीगते हैं ॥

दरख्त भी ख़ामोश से उजड़े से खड़े हैं
छाँव में जहाँ की कभी बैठे थे हम तुम
घास जो चुभती थी बदन में मखमल सी
अब आँख बंद करके वहां खड़ी है गुमसुम
तिनका कोई तोड़ के मूहँ में रखता नहीं
बस सीना उस जगह के पैर रौंदते हैं ॥
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