Dil Ko Chu Gayi Yeh Baat ..... (Jasbir Singh .. NM)

by jasbirsingh on October 28, 2015, 03:29:24 PM
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jasbirsingh
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कविता जो दिल को छू गई :
एक कमरा थाजिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए मेहमान बुला लेते थे हम.
फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं .
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंग रूम उन लोगों के लिए
जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंग रूम
उन लोगों के लिएजिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ
पहले मैं फुसफुसाता था तो
घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब,जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ तो साथ वाले कमरे से ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ कि मेरी चीख़ की वजह से वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से मैं चीख रहा हूँ !
आदमी पहुँच गया है चांद तक, पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता
और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ
अब मुझे अपने बाप की बेटी से अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे सेअपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है की तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा..
अगर समझ आ गई ,ये कविता
तो आज ही तोड़ डालो उन दिवारो को
जो आ गई रिस्तो के बीच ।
नही तो इनही दिवारो के बीच दम तोड़ना पड़ेगा ।



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adil bechain
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«Reply #1 on: October 29, 2015, 09:23:43 AM »
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कविता जो दिल को छू गई :
एक कमरा थाजिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए मेहमान बुला लेते थे हम.
फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं .
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंग रूम उन लोगों के लिए
जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंग रूम
उन लोगों के लिएजिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ
पहले मैं फुसफुसाता था तो
घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब,जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ तो साथ वाले कमरे से ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ कि मेरी चीख़ की वजह से वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से मैं चीख रहा हूँ !
आदमी पहुँच गया है चांद तक, पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता
और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ
अब मुझे अपने बाप की बेटी से अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे सेअपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है की तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा..
अगर समझ आ गई ,ये कविता
तो आज ही तोड़ डालो उन दिवारो को
जो आ गई रिस्तो के बीच ।
नही तो इनही दिवारो के बीच दम तोड़ना पड़ेगा ।



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waaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaah bahot achchchi sharing janaab yehi haal hai aaj rishto kaa  Applause Applause Applause Applause
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jasbirsingh
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«Reply #2 on: October 29, 2015, 11:19:52 PM »
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waaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaah bahot achchchi sharing janaab yehi haal hai aaj rishto kaa  Applause Applause Applause Applause

Very true sir
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sksaini4
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«Reply #3 on: November 18, 2015, 06:30:23 AM »
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Abhishek ChandraVanshaj
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«Reply #4 on: January 20, 2018, 02:18:03 PM »
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This poem is my intellectual work, published on 16 December 2014. (Source: trippleaa.blogspot.in/2014/12/a-common-man-poem-sure-to-touch-ones.html).
I want it to be either removed from this page or be published under my name.
With regards,
Abhishek Verma
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